कई मुद्दे ऐसे हैं जो सिर्फ भाषण का हिस्सा नहीं, बल्कि उनसे जिंदगियां प्रभावित होती हैं। वैसे तो स्त्री हो या पुरुष, सबका जिंदगी पर बराबर का हक है, पर इस वास्तविकता से कई लोग मुंह मोड़ना चाहते हैं, जिससे जीवन उथल-पुथल हो जाता है। ऐसे ही सोए इंसान को जगाने का बीड़ा उठाया है माया श्रीवास्तव ने, जो आधी आबादी को सम्मान से जीने का अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। दिल की बीमारी ने जब माया को कमजोर करने की कोशिश की, तब समाज सेवा उनके लिए संजीवनी बूटी बन गई। समाज की कुरीतियों ने उन्हें महिला सशक्तिकरण की दिशा में काम करने को प्रेरित किया। शहर के विकास, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और ह्यूमन ट्रैफिकिंग को लेकर उन्होंने सशक्त अभियान चलाए, जिससे महिला और बच्चों को जागरूक करने के साथ-साथ सही राह दिखाने का काम किया।
संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखने वाली माया का जन्म 1971 में वेस्ट बंगाल के हावड़ा में हुआ। स्कूली शिक्षा वेस्ट बंगाल में, जबकि उच्च शिक्षा धनबाद से प्राप्त की। स्नातक की पढ़ाई वेस्ट बंगाल से पूरी करने के बाद, शादी हो गई और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच कुछ सालों तक माया खुद को भूल चुकी थीं। बाद में संभलकर उन्होंने फिर से पढ़ाई शुरू की और एम.ए. की डिग्री हासिल की। चित्रकला में विशेष रुचि होने के कारण वे बच्चों को निःशुल्क पेंटिंग सिखाती हैं और जरूरतमंद महिलाओं को मधुबनी पेंटिंग, सिलाई-कढ़ाई के जरिए पैसे कमाने के गुण सिखाने के साथ उन्हें काम भी देती हैं। इसके अलावा, गरीब बच्चियों की पढ़ाई और उनकी शादी का आयोजन भी करती हैं। इस तरह, माया का जीवन परोपकार के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है।
समाज सेवा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को और मजबूत करने के लिए माया ने ‘कला संगम’ का संचालन शुरू किया। फील्ड वर्क के अनुभव ने उनकी सेवा की भावना को और प्रबल बना दिया। माया कहती हैं कि ‘आदि शक्ति सामाजिक विकास संस्थान’ की स्थापना से समाज में आशा की एक नई किरण जागृत हुई। उन्होंने कहा कि बेसहारों का सहारा बनने में जो खुशी है, वह किसी और कार्य में नहीं।
हालांकि माया को दिल की बीमारी थी, फिर भी उनका मन मजबूत था। वे कहती हैं कि सामाजिक सरोकारों से जुड़ते समय दिल की गंभीर बीमारी ने उनके शरीर को काफी नुकसान पहुंचाया। जब सब कुछ बिखरने लगा, तब डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि वे अपना सबसे प्रिय कार्य करें। माया ने अपने पति को समाज सेवा से मिलने वाली खुशी के बारे में बताया, और उनके पति ने उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें समाज सेवा में डूब जाने की अनुमति दी। इसके बाद समाज सेवा उनके लिए संजीवनी बूटी बन गई और वे फिर कभी बीमार नहीं पड़ीं।
शुरुआती दिनों में माया के लिए लोगों को समझ पाना मुश्किल था। वे बताती हैं कि शिक्षा, परिवार नियोजन, स्वास्थ्य, घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न के विरोध के प्रति जागरूकता फैलाने का बीड़ा उठाकर वे सामाजिक कुरीतियों से लड़ीं और जीतने पर बेहद खुश होती थीं। उनके पति हर सुख-दुख में उनका साथ देते और समाज सेवा के प्रति प्रेरित करते। इस तरह, सकारात्मक सोच ने माया को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी, और उनके निराश मन को खुला आसमान मिला, जिसमें वे प्रफुल्लित हो उठीं।
माया को विभिन्न सामाजिक कार्यों के लिए सम्मानित किया गया। बीपीएल सूची में अनियमितता के खिलाफ राज्य स्तरीय आंदोलन करने के लिए उन्हें 1996 और 1997 में सम्मानित किया गया। पटना हाई कोर्ट ने भी उनके कार्यों को सराहा। उन्हें चित्रांश एकता दिवस, चित्रांश चेतना मंच और यूथ हॉस्टल एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मान भी मिला। वे अखिल भारतीय कायस्थ महासभा की प्रदेश महिला अध्यक्ष रह चुकी हैं और ‘समर्थ नारी समर्थ भारत’ की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में देशभर में महिलाओं को उनके हुनर के माध्यम से स्वरोजगार के लिए प्रेरित कर रही हैं।
युवा पीढ़ी के लिए माया का संदेश है कि वे अपनी संस्कृति को न भूलें। यौन उत्पीड़न को गंभीर समस्या मानते हुए वे कहती हैं कि भटकाव की स्थिति पैदा होने से पहले खुद को संभालें क्योंकि युवा पीढ़ी देश का सुनहरा भविष्य है। अभिभावकों को भी बच्चों को आजादी देने के साथ उनकी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए।
✍ प्रो अमरेश श्रीवास्तव की कलम से